भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"सूर्यास्त जनम का"*
    (कुकुभ छंद गीत)
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विधान- १६ +१४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SS, युगल पद तुकांतता।
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*रोज उदय रवि का प्राची में, अस्त प्रतीची होता है।
सूर्यास्त जनम का भी होता, मर्म समझ क्यों सोता है??


*जीवन तो एक गीत जानो, मरण राग को गाना है।
अनन्त यात्रा अस्ताचल की, कर्म भला कर जाना है।।
'मैं' तजकर 'हम' अपनाये जो, भावन भाव सँजोता है।।
सूर्यास्त जनम का भी होता, मर्म समझ क्यों रोता है??


*शैशव-बचपन-युवा-बुढ़ापा, सोपान चार चढ़ना है।
उदयाचल से अस्ताचल को, धीरे-धीरे बढ़ना है।।
जर्जर काया के होते तक, प्रति पल चलना होता है।
सूर्यास्त जनम का भी होता, मर्म समझ क्यों रोता है??


*शरीर जाए मरे न आत्मा, नव चोला है धर लेती। 
अनन्त गहरे सागर में ले, लहर निहत्था कर देती।।
साथ समय के चलकर मानव, कुछ पाता कुछ खोता है।
सूर्यास्त जनम का भी होता, मर्म समझ क्यों सोता है??


*मरने में ही पुनर्जनम है, जीवन में फिर मरना है।
चहक चमन की और चमक को, हर पल उन्नत करना है।।
उदय-अस्त के दर्शन में जन, काटे वह जो बोता है।
सूर्यास्त जनम का भी होता, मर्म समझ क्यों रोता है??
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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