गीत नहीं कोई लिख पाती
भाव नहीं दे पाती हूँ।
देख विषम हालात जहाँ के
अंतस नीर बहाती हूँ।।
शस्य श्यामला सी ये धरती
वीराने पर रोती है,
पाला जिसको निज आँचल में
अपने सम्मुख खोती है,
रो रोकर कहती हूँ सबसे
हिय का हाल सुनाती हूँ।।
कितने पापी नर पिशाच हैं
अंश ईश का खाते हैं,
संबल हैं जो इस अवनी के
उनको खूब सताते हैं,
ज्ञानी हो पर श्रेष्ठ नहीं तुम
गूढ़ भेद बतलाती हूँ।।
सार्स कभी कोरोना बनकर
प्रकृति क़हर बरसाती है,
खेल रही है खेल मृत्य का
मानो प्रलय बुलाती है,
आर्य संस्कृति मूल मंत्र है
सच की राह दिखाती हूँ।।
अर्चना द्विवेदी
अयोध्या उत्तरप्रदेश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें