अवधेश रजत      वाराणसी

*निर्भया*
सात वर्ष और चार माह से
जिसकी उसे प्रतीक्षा थी,
न्याय व्यवस्था की खातिर भी
ये तो अग्नि परीक्षा थी।
दुष्ट भेड़ियों की फाँसी पर
वो भी मुस्काई होगी,
आज निर्भया की आँखों में
बदली फिर छाई होगी।
दृश्य भयावह स्मृतियों से
मिटे नहीं होंगे अब तक,
होगी ज्वाला शान्त न मन की
पूछ न लेगी वो जब तक।
आखिर क्या अपराध था मेरा
क्यों ये अत्याचार किया,
मैं भी तो एक बहन थी भइया
बोलो क्यों मुझको मार दिया।।


न्यायालय की चौखट पर मैं
आस लगाए खड़ी रही,
बदले मौसम साल महीने
किन्तु वहीं पर अड़ी रही।
नाम निर्भया मिला मुझे पर
निर्भय हो कर रही नहीं,
धारा थी उन्मुक्त नदी की
लेकिन खुल कर बही नहीं।
पापा मम्मी के पैरों से 
छाले फट कर बहते हैं,
दुनिया वालों के तानों को
चुप रह कर वो सहते हैं।
बूढ़े कंधों पर क्यों तुमने
असह्य वेदना भार दिया,
मैं भी तो एक बहन थी भइया
बोलो क्यों मुझको मार दिया।।


सोचा था मैं बन कर डॉक्टर
सबकी पीड़ा हर लूँगी,
जिस आँचल में बीता बचपन
उसमें खुशियाँ भर दूँगी।
पेट काट कर मुझे पढ़ाया
कष्ट झेल कर पाला था,
दी मुझको आज़ादी पूरी
नहीं स्वप्न पर ताला था।
जब उड़ने की बारी आई
तुमने मुझे दबोच लिया,
फैले थे जो पंख हवा में
तुमने उनको नोच दिया।
मर्यादा की सीमाओं को
तुम सबने क्यों पार किया,
मैं भी तो एक बहन थी भइया
बोलो क्यों मुझको मार दिया।।


दुनिया के न्यायालय से जो
न्याय मिला वो थोड़ा है,
नीच कर्म की सजा सरल दे
संविधान ने छोड़ा है।
बेटी बन कर आई जग में
क्या उसका परिणाम मिला ?
जगदम्बा के पुण्य रूप को
भक्तों से ईनाम मिला।
हुई दुर्दशा दैहिक जितनी
उतना ही सब जान रहे,
मन पर मेरे घाव लगे जो
उससे सब अनजान रहे।
अधिवक्ताओं के तीखे
प्रश्नों ने प्रबल प्रहार किया,
मैं भी तो एक बहन थी भइया
बोलो क्यों मुझको मार दिया।।


©अवधेश रजत
     वाराणसी
सम्पर्क#8887694854


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