एक श्रृंगारिक घनाक्षरी
पिछले बरस तूने, जो होली में भिगोई थी,
मेरी वो चुनर देखो, अभी भी ग़ुलाबी हैं।
घर आँगन महके, साथ जब भी होते हैं,
फूल कली बहारे भी, लगती शबाबी हैं।
बंद अधरों से आप, सब कुछ कह देते,
हिय प्रिय लगते हो, नयना शराबी हैं।
आपके बिना दिल को, चैन नही मिलता हैं,
प्यार वफ़ा वाली बातें, हो गयी किताबी हैं।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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