अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक घनाक्षरी छंद 


कभी  जिन  खेत बड़ी, फसल लहराती थी,
जाने  कैसे  वही  आज,  बंजर  हो  गए हैं।
खुशी  मिलती अपार, जिनको थी  देखकर,
ग़मगीन  वो   भी  अब,  मंजर  हो  गए  हैं।
जो आशीर्वाद देते थे, आज उन हाथों में भी,
पीठ  घोपने  के  खूनी,  ख़ंजर  हो  गए  हैं।
जीण क्षीण काया रही, जिनकी हमेशा सुनो,
आज   वही   मद  मस्त, कुंजर  हो  गए  हैं।
 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


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