एक नया गीत सादर निवेदित हैं...
मैं सुमन को रोपता हूँ नागफनियों के चमन में।
नेह का दीपक जलाता इस धरा से उस गगन में।
खुशबुओं से बाग़ महके ये हमारे आरजू हैं।
प्रीत हो अबला पुरुष में मेघ बरसे उर तपन में।
मैं सुमन को रोपता हूँ नागफनियों के चमन में।(1)
आस जाग्रत अब करें सब जिन्दगी की राह में हम।
मंजिलों से अब न भटके कोइ लोलुप चाह में हम।
हो प्रताड़ित या तिरष्कृत हैं यही अरमान मेरे।
पर सदा आते रहेंगे खूब रोज पनाह में हम।
प्राण की आहुति रहेगी रोज जीवन के हवन में।
मैं सुमन को रोपता हूँ नागफनियों के चमन में।(2)
मृगसिरा की सब तपन के बाद ज्यों आद्रा सुहाए।
हो बहुत अच्छा कभी जो आप मैं से हम कहाए।
प्रीत के गुलशन मिटायें तल्खियाँ जो दरम्यां हो।
प्यार की सुरसरि नहाके रूह दरपन सी बनाए।
शीश मेरा अब झुकेगा आप के ही हर नमन में।
मैं सुमन को रोपता हूँ नागफनियों के चमन में।(3)
रातरानी की महक से अब रहें रिश्तें सुगन्धित।
देख के उपवन मनोरम हिय हमारे हो अनन्दित।
आरजू अब भी यही हैं और भी कुछ पा सकेंगे।
बस यही चाहूँ सदा बहती रहे ये वायु मन्दित।
आपके आते सदा होती बड़ी रौनक भवन में।
मैं सुमन को रोपता हूँ नागफनियों के चमन में।(4)
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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