बलराम सिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म व्याख्याता

गोस्वामी तुलसीदास कृत लक्ष्मण वन्दना श्री रामचरित मानस


बन्दउँ लछिमन पद जल जाता।
सीतल सुभग भगत सुख दाता।।
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका।।
सेष सहस्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  वन्दना प्रकरण के क्रम में गो0जी कहते हैं कि अब मैं श्रीलक्ष्मणजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ जो शीतल,सुन्दर और भक्तों को सुख देने वाले हैं।श्रीरघुनाथजी की कीर्तिरूपी विमल पताका में जिनका यश पताका को ऊँचा करके फहराने वाले दण्ड के समान हुआ।
  जो हजार सिर वाले और जगत के कारण अर्थात पृथ्वी को अपने सिरों पर धारण करने वाले शेषजी हैं,जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
   शीतल,सुभग,भगत सुखदाता कहने का भाव यह है कि श्रीलक्ष्मणजी प्रभुश्री रामजी के सुयश को भक्तों के सामने प्रकाशित करने वाले हैं जिससे भक्तों का हृदय शीतल हो जाता है और उन्हें बहुत ही सुख प्राप्त होता है।एक अन्य भाव यह भी हो सकता है कि जब महाप्रलय के बाद भगवान शेषशय्या पर विश्राम करते हैं तभी उनका सँहार करने का श्रम शीतल होता है।
  यहाँ गो0जी ने प्रभुश्री रामजी की कीर्ति को पताका व श्रीलक्ष्मणजी के यश को दण्ड कहा।इसका तात्पर्य यह है कि पताका और दण्ड दोनों साथ ही रहते हैं।क्योंकि दण्ड के बिना पताका फहरायी नहीं जा सकती है।श्रीलक्ष्मणजी ने अनेक अवसरों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।जैसे सुबाहु व मारीच युद्ध में सेना का सँहार, सूर्पनखा के नाक कान काटना, जनकपुर में महराज जनक के साथ सम्वाद,धनुषभंग के समय दिक्पालों को सचेत करना,परशुरामजी के साथ वार्तालाप,सुक सारन के हाथ रावण को पत्र भेजना,मेघनाथ वध,आदि।
  श्रीलक्ष्मणजी को हजार सिरों वाले शेषजी का अवतार माना जाता है।यथा,,,
ब्रह्मांड भुवन बिराज जाके एक सिर जिमि रजकनी।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुवन धनी।।
  मेघनाथ वध के पश्चात देवताओं ने प्रभुश्री रामजी के यशगान के साथ श्रीलक्ष्मणजी का भी जयघोष किया था।यथा,,,
बरषि सुमन दुंदभी बजावहिं।
श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं।।
जय अनन्त जय जगदाधारा।
तुम्ह प्रभु सब देवन्ह निस्तारा।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


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