बलराम सिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक मानस व्याख्याता

श्री रामचरित मानस में गोस्वामी जी द्वारा भरत वन्दना


प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना।।
राम चरन पंकज मन जासू।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  भाइयों में सर्वप्रथम मैं श्रीभरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता है और जिनका मन प्रभुश्री रामजी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है जो उनका सामीप्य कभी नहीं छोड़ता।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  गो0जी ने श्रीरामचरित मानस व विनय पत्रिका में श्रीभरतजी के नियम व व्रत का अद्भुत वर्णन किया है।अयोध्याकाण्ड के अन्तिम भाग में वे श्रीभरतजी के विषय में कहते हैं कि श्री भरतजी के नन्दीग्राम में रहने का ढंग,समझ,करनी,भक्ति, वैराग्य,निर्मल गुण और ऐश्वर्य का वर्णन करने में सभी सुकवि भी संकोच करते हैं क्योंकि वहाँ औरों की तो बात ही क्या,स्वयं शेष,गणेश और सरस्वती में भी उसका वर्णन करने की क्षमता नहीं है।यथा,,,
भरत रहनि समुझनि करतूती।
भगति बिरति गुन बिमल बिभूती।।
बरनत सकल सुकबि सकुचाहीं।
सेस गनेस गिरा गमु नाहीं।।
 श्रीगो0जी कहते हैं कि श्रीसीतारामजी के प्रेमरूपी अमृत से परिपूर्ण श्री भरतजी का जन्म यदि न होता तो मुनियों के मन को भी अगम यम,नियम,शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कौन करता?दुःख,सन्ताप,दरिद्रता, दम्भ आदि दोषों को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता?तथा इस कलियुग में तुलसीदास जैसे शठों को हठपूर्वक कौन प्रभुश्री रामजी के सम्मुख करता?यथा,,,
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनम न भरत को।
 मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुख दाह दारिद दम्भ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
 कलिकाल तुलसी से सठिन्ह हठि राम सन्मुख करत को।।
भरत चरित्र का शेष भाग कल।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


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