बलरामसिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक EX LTR B.B.L.C.INTER COLLEGE KHAMRIA PANDIT

गोस्वामी जी द्वारा मिथिलेश जनक जी की वन्दना एवम उनके प्रति कृतज्ञता


प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू।।
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  गो0जी कहते हैं कि अब मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ जिनका प्रभुश्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था।जो प्रभुश्री रामजी को देखते ही प्रकट हो गया।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  मिथिला नरेश महराज श्री जनकजी की समस्त प्रजा ब्रह्मज्ञानी थी,इसीलिए गो0जी ने परिजनों सहित श्री जनकजी की वन्दना की।श्री जनकजी का प्रभुश्री रामजी के चरणकमलों में गूढ़ अथवा गुप्त प्रेम था जबकि महाराज दशरथजी का प्रेम प्रकट रूप से था।इसी कारण महाराज दशरथजी ने राम के वियोग में अपने प्राण त्याग दिये थे जबकि महाराज जनकजी का प्रेम प्रभुश्री रामजी को मिथिला में देखकर प्रकट हुआ था।श्री जनकजी योगपूर्वक भोग में अनासक्त होते हुए सदैव जिस अनिर्वचनीय तत्व का अनुभव करते थे और जिस आनन्द को प्राप्त होते थे, वह उन्हें प्रभुश्री रामजी के दर्शनों से प्राप्त हो गया।तभी तो उन्होंने यह सन्देह किया कि ये नररूपधारी राजकुमार वही परब्रह्म तो नहीं हैं।इसीलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्रजी से यह कहा था कि ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक हैं।मेरा वैरागी मन इन्हें देखकर मुग्ध क्यों हो रहा है।इन्हें देखकर मेरे मन ने बलात ब्रह्मसुख को त्याग दिया है।यथा,,,
कहहु नाथ सुन्दर दोउ बालक।
मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय वेष धरि की सोइ आवा।।
सहज बिरागरूप मन मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा।।
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।
।।जय जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


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