*यादों की बारात*
थी सावे की आखरी रात
निकल पड़ी यादों की बारात
दूर कहीं बजी शहनाई
जहाँ पहुँच थमनी थी बारात
संग ख्वाब थे महके हुए
चंद खयाल भी बहके हुए
रिमझिम रिमझिम बरस रही थी बूंदे
खोल कपाट निकल पड़ी यादों की बारात
बचपन चहक रहा था
नटखट गिल्ली-डण्डा,
कंचे,चोर-सिपाही खेलता
खट्टी कैरीओ'कटारे चाट रहा था
आया उमर का चौराहा सामने
जोश जवानी का उबल रहा था
कर्म का टोकरा सर पर लादे
इधर- उधर भाग रहा था
जीवन के दोराहे पर अटका
थोड़ा घर,थोड़ाबाहर भटका
पीठ झुकी बच्चों केबोझ से
भूल गया बचपन का खेला
यादों की बारात जबनिकली
दूर कहीं बजी शहनाई थी
बीते बसंत और होली -दीवाली,ईद सभी की याद आई थी
यादों के फेरे में मेरे तेरी भी
याद चली आई थी
वो दरिया का था किनारा
वही कदंब की छांव थी
तू श्याम मेरा था,मैं श्यामा
तेरी परछाईं थी
था मिलन हमारा अमर तो
अल्हड़ लहरों के सरगम में
शाख-पात ने हवाओं के
सुर में रिदम अपनी मिलाई थी
रुठ गई मौजे रवानी
बीत गई वो जवानी
यादें चौराहे पर अटकी
खुली आँख हकीकत की
बारात ना जाने कहाँ भटकी
डा.नीलम
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें