मुक्तक-1/2
प्रखर पुंज ये दिव्य अनल से,यज्ञ सुहाता है ।
यजन धूम हो शुद्ध सात्विक,मन महकाता है ।
कुटिल एक ही चिंगारी कब,शोला बन जाये ,
मत भड़काओ अंतस में जो, राख बनाता है ।
नेह प्रेम के रिश्ते जो हैं,सदा निभाता चल ।
आपस में मतभेद क्लेष हो,उसे मिटाता चल ।
चहुंँ ओर सजी वासंती ये, सरसे फागुन में,
झूम उठी मादक अमराई, मन तू गाता चल ।
डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें