कर्म के दीप यदि तुम जलाते रहो,
कष्ट के सब तिमिर लुप्त हो जाएँगे।
होगा दर्शन त्वरित एक सुप्रभात का,
बंद पंकज भ्रमर मुक्त हो जाएँगे।।
कर निरीक्षण तनिक तू अखिल विश्व का,
धरती, अंबर व सरिता सप्त सिंधु का।
सबके आधार में तम ही प्रच्छन्न है,
ज्योति-दाता परंतु सूर्य प्रसन्न है।
धैर्य से पथ पे यदि तुम निरंतर चलो-
आपदाओं के क्षण लुप्त हो जाएँगे।।
रात्रि चाहे कुहासों से आच्छन्न हो,
चाँदनी का गगन क्षेत्र आसन न हो।
धुंध का ही चतुर्दिक प्रहर क्यों न हो?
कंटकाकीर्ण आपद डगर क्यों न हो?
चेत मस्तिष्क मानव का चैतन्य नहीं-
स्वप्न-सरगम के सुर सुप्त हो जाएँगे।।
स्वार्थ-लोलुप न हो कर्म-साधक बनो,
कर्म ही ईष्ट है,कर्मोपासक बनो।
सृष्टि का धर्म बस कर्म ही कर्म है,
कर्म ही धर्म है,कर्म ही धर्म है।
कर्म की यष्टि से यदि करो पथ-भ्रमण-
लक्ष्य जीवन के सब तृप्त हो जायेंगे।।
कर्म के दीप यदि तुम जलाते रहो....।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
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