"जल रहा है देश"
जल रहा है देश यह क्या हो रहा,
कौन विष की वेलरी को बो रहा?
दल विभाजित कर रहे हैं देश को,
फूँकने को हैं खड़े परिवेश को।
स्वार्थ के मैले वसन को पहन कर,
हिंस्र बन बदनाम करते वेश को।
भूख सत्ता की लगी है जोर से,
चाहते सत्ता पलटना शोर से,
पागलों सा पलटते हर बात को,
घेरते घिर जा रहे चहुँओर से।
अर्थ अरु सम्मान की है भूख इनको सालती,
कामना की कोख इनको पालती,
बेशरम इंसान इनका नाम है,
चाह इनको कुपित मन में ढालती।
कायरों का ही वेश है परिधान है,
अति हताशा बन गयी पहचान है,
जी रहे हैं जिन्दगी खुदगर्ज बन,
मर रहे हर पल पतित इंसान हैं।
राष्ट्र को ही तोड़कर सुख चाहते,
राष्ट्र का की कत्ल करना जानते,
राष्ट्र से इनका नहीं मतलब है कुछ,
राष्ट्र को पीने का मकसद मानते।
मर गयी वैचारिकी सद्भावना,
हो रही अन्याय की ही वन्दना,
खुद रही नफरत की खाईं आज है,
हो रही इंसानियत की निन्दना।
एक केहरि को गिराने के लिये,
एक गौरव को झुकाने के लिये,
संगठित होते यहाँ गीदड़ सभी,
एक सुन्दर छवि मिटाने के लिये।
नीचता की सरहदों को पार कर,
सुन्दरम की भावना को मार कर,
चाह मन में खुद दिखें नित सुन्दरम,
देव का प्रतिकार कर ललकार कर।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
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