हलधर

ग़ज़ल ( हिंदी)
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आ गया हूँ मंच पर तो गीत गाकर ही रहूँगा ।
शब्द की कारीगरी को आजमा कर ही रहूँगा ।


मुक्त कविता के समय में गा रहा हूँ छंद लय में,
ज्ञान पिंगल का जमाने को  बताकर ही रहूँगा ।


खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का ,
सूर्य की पहली किरण का स्वाद पाकर ही रहूँगा ।


मुक्त होता है कभी क्या सांस का सुर ताल बंधन ,
छंद के सौंदर्य को जग में  सजाकर ही रहूँगा ।


सुप्त सरिता कह रहे हैं रेत में डूबी नदी को ,
उस नदी को नींद से अब तो जगाकर ही रहूँगा।


मुक्त तो ग्रह भी नहीं  है व्योम गंगा के निलय में ,
ज्ञान यह आकाश का सबको बताकर ही रहूँगा ।


भागते दिन भर रहे जो कार में भी साथ मेरे ,
शे'र "हलधर"डायरी के काम लाकर ही रहूँगा ।


            हलधर -9897346173


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