*शगुन*
मसोसती मन गरीबी,
देख अमीरों के खाते।
थे रंगहीन, हुए रंगीन
मन के अहाते।
रास आए न फिर भी जग को
हँसी के संग आँसू छलछलाते।
आता है कई बार मन में
लिपट कर वृन्दावन रज से
कान्हा की गोपी कहाते।
गुलाल से तुम्हारे
स्वयं को भिगाते।
दिया जो दर्द समझ *शगुन*
लगाए सिर-माथे...💐
7:16
14/3/2020
निधि मद्धेशिया
कानपुर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें