निशा"अतुल्य"

लो चल पड़ी क़लम
4 /3 /2020
ताँका विधा


चीत्कार तेरी
देख दुनिया हुई
मौन क्यों कर 
खो गई थी राह जो
वो उसने ढूढ़ ली 


भीगे नयन
उलझे से जज़्बात
चीर हरण
रुन्दति है अस्मिता  
नारी की कभी कहीं।


तो चल पड़ी
कलम लिखने को
मुखर मौन 
जो है बहुत बड़ा
दिखता नगण्य क्यों।


लेखनी तुम
न होना मौन कभी
चला जाता है
जग रसातल में
जब तू होती मौन ।


शंखनाँद हो
एक यलगार हो
प्राण फूँक दे
निर्जीव जो प्राण हो
उठाये शस्त्र ख़ुद ।


कर चेतन
नारी को इस बार 
दिखे संजीव
वो नारी बन दुर्गा 
स्वयं को जो भूली हो।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


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