*~एक प्रयास~*
*कोरा कागज लाल हो गया*
तार-तार मानवता सिसके, घृणित दृश्य विकराल हो गया।
आतंकी कुंठा प्रतिशोधी, सहमा सब्र हलाल हो गया।।
सिसक रही थीं धर्मध्वजाऐं, आर्तनाद क्रंदन घर-घर।
निर्ममता चंड़ाल हो गयी, निरीह वेदना कांपी थर थर।।
समझ सका न वक्त कुचालें,
भय का मंज़र काल हो गया ।।
*सहमा सब्र हलाल.......*
कहीं सिसकता माँ सा आंचल , कहीं राखियाँ मौन हुईं ।
संतति कहीं अनाथ हो गयी, परिणीता कहिं पौन हुई।।
ह्रदय विचारक दृश्य रुलाते,
शर्मसार नत भाल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*
उठो आर्य कर लायक साधो, अब मात भारती रही पुकार।
विध्वंस करो नफरत दीवारें, करो कुमति का द्रुत संहार ।।
मिलें खाक में नियति दोगली,
शंका भय तत्काल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*
मुट्ठी भर नाखून विषैले, क्या अमन चैन का हरण करेंगे।
विस्तारवाद को झूठे मंज़र, क्या गंग ओ जमन का मरण करेंगे।।
प्रखर भारती यही सोचती,
क्यों कोरा कागज लाल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*
*प्रखर दीक्षित*.
*फर्रुखाबाद*
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