प्रिया सिंह लखनऊ

कर गया वो किनारा समंदर हवाले कर के
छीन गया वो रोटी मुँह पर निवाले कर के


इस जख्मी दिल के सवालात खत्म हों कैसे
बेनज़ीर बैठे रहे ता उम्र मुँह पर ताले कर के


खुश्क पत्ते भी अब तो शजर को छोड़ देंगे 
हम पायेंगे भी क्या उनके मुँह काले कर के


सफर अंगारों से भरा बेशक होता तेरे साथ
अकेले कब तक चलेंगे ये पाँव छाले कर के


हम तो खुद ही मर चुके हैं अब तमन्ना क्या 
पाओगे कुछ भी नहीं पीठ पर भाले कर के


इश्क किया द़ाग भी लगे सम्भाला ना गया
अब दिखाओ करतब तुम भी आले कर के


बना कर बुत उसकी परस्तिश करता रहा
उम्र बीत गई यादों में उनके नाले कर के


खा गया दीमक मुझे वीरान बंजर बनाकर
मैं भी सोता रहा भर आखों में जाले कर के


खामियाज़ा ये के मशरूफ हूँ तनहाईयों में 
अब तो आजाओ सफर में उजाले कर के



Priya singh


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