प्रिया सिंह

मैं बेवकूफ़ था जिन्दगी में मुझे छल नहीं आया
तकलीफें बहुत आईं पर उसका हल नहीं आया


मैं लड़ता था अपने मुक़द्दर से आज के लिए 
मेरे जीवन में तब भी खुशनुमा कल नहीं आया


मैं चलता रहा सच्चाई और नेकी पर तब भी
मेरे रास्ते में खार आये पर फल नहीं आया


वो जाने कौन थे जो डूबते-उभरते रहते थे
मैं बुजदिल लड़ता कैसे मुझे बल नहीं आया


मै डूबा तो था यह सोच कर के उभर जाऊँगा
संभलता कैसे पायाब सा दलदल नहीं आया


मैं सुकून तलाशते हुए जानें कहाँ पहुंच गया
मैं मुस्कुरा सकूँ दिल से वो पल नहीं आया


मैं प्यासा भटकता फिरा मंदिरों मस्जिदों में  
तरश आया__पर मूर्ति में हलचल नहीं आया


मैं साफ मिज़ाजी था, तब पर भी पूजा उसको
गुस्सा आया तुझ पर__दिल में मल नहीं आया


मैं सिखाता रहा बन कर काफिर इस जग को
बारी खुद की आई तो खुद अमल नहीं आया



Priya singh


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