"मेरी पावन मधुशाला"
मधुभावों से युक्त फागुनी दिव्य सुगन्धित है हाला,
देख फागुनी अँगड़ाई को झूम रहा पीनेवाला,
फागुन के मधुमास मनोहर से आह्लादित साकी है,
देख प्राकृतिक छटा फागुनी थिरक रही है मधुशाला।
प्रकृति निराली छवि मनमोहक पिला रही सबको प्याला,
देख प्राकृतिक मधु-आकृति को मस्त-मस्त पीनेवाला,
मंद-मंद बह रहा पवन है जिमि अति मधुमति साकी है,
बनी हुई है प्रकृति मनोरम मेरी पावन मधुशाला।
बना हुआ है गगन अनोखा जैसे अति व्यपक प्याला,
सिन्धु- वारि सी बनी हुई है मेरी मधुमादक हाला,
पवन देव ही साकी बनकर पिला रहा जग-मण्डल को,
सहज समूची सृष्टि बनी है मेरी पावन मधुशाला।
गंगोत्री के पावन जल सी अति निर्मल मेरी हाला,
स्वस्थ तन-मना बन जाता है हर कोई पीनेवाला,
बने हुये हैं शैल सुशोभित साकी के निज रूपों में,
बनी हुई हैं पावन गंगा मेरी पावन मधुशाला।
वन्दनीय है पीनेवाला वन्दनीय कंचन प्याला,
युगों-युगों से पूजनीय है देव-सोमरस सी हाला,
सार्वभौम-शाश्वत सुविचारी देव तुल्य प्रिय नित साकी,
अमरबेलि जिमि अनत अमृता परम पूज्य है मधुशाला।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
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