विधाता छंद
चला करतीं कहीं तो शीत लहरें प्राण लेती हैं ।
कहीं लहरें सुनो सर्दी बढ़ा ही रोज़ देती हैं ।।
ज़रा सोचो गरीबों का सदा ही हाल क्या होता ।
किसी कंबल रजाई के बिना बच्चा रहे रोता ।।
कहीं बाहर जला कर आग सेंकें पाँव - हाथों को ।
यही है जो गरीबी तो भुलाते रोज़ बातों को ।।
गुज़ारा चाय पर करते भुलाते बदनसीबी को ।
नहीं कंबल नहीं बोलें किसी भी वे क़रीबी को ।।
न हीटर है न ही कोई अँगीठी पास उनके ही ।
जलाते हैं लकड़ियाँ भी सभी ही आज चुन के ही ।।
कड़ाके की अभी सर्दी सही जाती कहाँ अब तो ।
धरे रहते गरीबों के सुनो सपने यहीं सब तो ।।
गरीबों पर दया करना सदा इनका भला करना ।
अभावों में रहें वे तो सुनो झोली सदा भरना ।।
मिले आशीष प्रभु तेरा गरीबी दूर हो जाये ।
दिला दो आज कंबल भी कि अब मुस्कान आ जाये ।।
रवि रश्मि 'अनुभूति '
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