पुष्प
पुष्प जैसा जीवन हो मेरा
स्वयं खिलूँ व जग मन हरषाऊँ
सुरभित रहूँ सदा में जग में
सुरभि से हरदिल को महकाऊं
कोई आकांक्षा नहीं है मेरी
कि पहनें हृदय पै हार बनाकर
देव प्रतिमा पर चढ़ाएं मुझे
इतराऊँ में भव गहना बनकर
बिखर जाए अस्तित्व भले
बनूं न मैं जन पीड़ा का कारण
खुशी मिले मेरी खुशबू से
मुझे अपना हों दुःख निवारण
स्पर्श भी सुख दे मानव को
मेरे रुप व रंग से भी चैन मिले
कोमल कोमल पंखुड़ियों से
स्नेह और प्यार भरा सकूं मिले
नौचें खरौचे मधुमक्खियां भी
मेरे मधु व मकरन्द का पान करें
तितलियां मंडरा मंडरा कर
न मेरी शुचिता का गुणगान करें
भ्रमर पंक्तियां नाचें व गायें
रसिक हृदयों को देवें आनन्द
वैसे हो फूलों जैसा जीवन
जग में फैले कृतित्व मकरन्द।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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