कोरा कागज लाल हो गया
कोरा कागज थी मेरी धरणी,
अब रंग इसका लाल हो गया।
राष्ट्रद्रोह के कुत्सित इरादों से,
संस्कृति का बेहाल हो गया।।
पत्थर वाजों के बेखौफ भाव,
जो देते रहे जेहाद का नाम ।
लूटते रहे है आबरू वतन की,
करते रहे देश को बदनाम।।
विश्वगुरू से मण्डित अलंकृत,
संस्कारों की जो जन्मदात्री।
कूटनीति के कुचक्रों में फंसी,
वहां अमानवीयता की रात्री।।
पर जाग रही वह पावन धरा,
बहने लगी है विकास बयार।
अब राष्ट्रप्रेम अंगड़ाई ले रहा,
पुनः प्रवाहित है शीतल धार।।
निश्चय ही कोरे कागज को हम,
कैसे भी लाल नहीं होने देंगे।
मर जायेंगे मिट जायेंगे भले ही
मां का सिर नहीं झुकने देंगे ।।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें