आह,
निकली थी एक, जडमति सी हो गई।
पिया, के संग सौतन, मै हार मति ,सी हो गई।
जिंदगी विरहन बेला मे, मै कैसे जी पाऊंगी।
बिना पिया के साथ लिए, अब रह.ना पाऊंगी।
सोच सोच घबराई मै, एक सती सी हो गई।
और जालिम दुनिया के आगे मै, हति सी हो गई।
कैसे समझाउ मनवा, चैन कैसे पाऊ।
इस.विरह अग्नि मे मै जल जल जाऊ।
उठे तो सिसकियो मे दिल, और मचलाए सिसकियो मे।
अब तो साजन मुझसे एक पल रहा ना जाए।
आ जिधर भी बैठा है तू, मत इस तरह से मार।
एक अच्छे उपवन के फूल को इस तरह ना तू बिखार।
जिंदगी तेरी ही अमानत यहां है थी।
मौत भी आयी नही यही.मै, सतासी सी हो गई।
आज बता सारे जग को मै तेरी का लगती हूँ।
जिसने तुझको चाहा इतना, वह चाहत क्या होती हूं।
या दिल तेरा दूजो के संग है। दूजो मै व्यथित सी हो गई हूँ।
साजन तेरे बिना, अब तो मै। हतास सी हो गई हूं।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
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