कविता:-
*"मन"*
"मन की पीड़ा को साथी,
जग में मन ही जाने।
कोई न जगत में तेरा,
जो इसको पहचाने।।
सच्चे संबंधों को भी,
कोई अपना न माने।
स्वार्थ की धरा पर तो,
हर कोई पहचाने।।
मैं-ही-मैं बसा मन जो,
अपनत्व को न माने।
जीवन है-अनमोल यहाँ,
इसे भी न पहचाने।।
दे शांति तन-मन जो यहाँ,
ऐसा गीत न जाने।
भक्ति रस में डूबे तन मन,
तब प्रभु को पहचाने।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupt
22-03-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनील कुमार गुप्ता
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