कविता:-
*"दस्तूर"*
"दस्तूर ज़माने में सदियों से साथी,
माता-पिता-गुरू की-
सदा करें सेवा भरपूर।
नई सदी के बच्चें तो साथी,
भूल गये ये दस्तूर-
माता-पिता रहते उनसे दूर।
बुढ़ापे में भी होती नहीं सेवा,
घर नहीं उनका कोई-
वृद्धाश्रम में रहने को मज़बूर।
सात्विक भोजन करने का रहा दस्तूर,
भूल गये उसको-
फास्ट फूड खाने को मज़बूर।
मात-पिता-गुरू की सेवा का,
सपना बन गया-
कैसे हो साकार?
दस्तूर ज़माने में सदियों से साथी,
माता-पिता-गुरू की-
सदा सेवा करें भरपूर।।"
ः सुनील कुमार गुप्ता
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनील कुमार गुप्ता
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