सुनीता असीम

हमें तो आ रही है बू बगावत की अदावत की।
चली है चारसू कैसी हवा देखो हिकारत की।
***
किया दुख दर्द साझा था सदा जिसने मुहब्बत से।
वो अब तो भेंट चढ़ता जा रहा केवल सियासत की।
***
रहा जो प्यार का सागर बना है खौफ का साया।
उतारा शर्म का पर्दा बना मूरत ज़हालत की।
***
अगर हिम्मत करें इंसान तो लांघे वो पहाड़ों को।
मगर उसने चुनी कब है डगर कोई भी महनत की।
***
बदलता रूप है हैवान अक्सर आदमी का ये।
वो भूला है खुदा की पाक खिदमत को इबादत को।
***
खुदा को भूलकर इंसान बनता जा रहा दानव।
खुदा समझे खुदी को वो जरूरत क्या जियारत की।



***
सुनीता असीम
3/3/2020


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...