कुछ सवाल एैसे ही....
क्यों हर बार कोई सवाल,
ज़हन में क्रोंध जाता है.
और मैं सोचने पर मज़बूर हो जाता हूँ.
क्यों हम उम्मीद लगाते हैं,
इस भरी पूरी दुनियादारी से.
लोग जबकि धत्ता बताकर,
निकल जाते हैं करीब से.
सपनों की कुंद ज़ुबान,
जिसे केवल हम समझ पाते हैं.
क्यों दूसरों के लिए
बेमानी हो जाती है,
क्यों नहीं देख पाता कोई,
हमारी आँखों के भित्तिचित्र.
कुछ सवाल आँखों में
ला देते हैं सूनापन.
और महसूस हो जाता है,
अपना छोटा कद.
जो की मुकम्मल नहीं
इस भागती ज़िन्दगी में.
सवालों का पिटारा लिए "उड़ता ",
इधर से उधर भागते लोग.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
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