*कुण्डलियां छंद*
कैसे दिल्ली जल रही, किसका है यह काम।
जाति धर्म के नाम पर,कब तक ये संग्राम।
कब तक ये संग्राम, बताएगा भी कोई।
बढ़े सियासतदार, वहीं बस जनता रोई।
*मधु* कहती यह बात, करोगे कब तक ऐसे?
नेह बने जल धार, जले तब दिल्ली कैसे।।
*©मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*
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