गोस्वामी जी द्वारा मां सीता जी की वन्दना
जनकसुता जगजननि जानकी।
अतिशय प्रिय करुनानिधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपा निरमल मति पावउँ।।
।श्रीरामचरितमानस।
अब मैं श्रीजनकजी की पुत्री,जगत की माता, जानकी नाम वाली,
करुणानिधान प्रभुश्री रामजी की अतिशय प्रिया श्री सीताजी के दोनों चरणकमलों को मनाता हूँ,जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्धि पाऊँ।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
भावार्थः---
यहाँ श्रीसीताजी के विभिन्न नामों को कहने का भाव यह है कि किसी भी व्यक्ति की श्रेष्ठता चार प्रकार से देखी जाती है--
1--जन्मस्थान के आधार पर--
यहाँ जनकसुता कहकर मिथिलेश जनक की राजधानी जनकपुर में जन्म लेना सिद्ध किया।यद्यपि जनकजी की एक अन्य पुत्री उर्मिला भी थीं।
2--जगजननि कहकर स्वभाव व तन की श्रेष्ठता सिद्ध की।श्रीसीताजी का स्वभाव व तन जगत की माता के समान है।बालकाण्ड मङ्गलाचरण में गो0जी ने माता सीताजी की वन्दना उत्पत्ति करने वाली, पालन करने वाली और सँहार करने वाली,
क्लेश हरने वाली तथा सभी प्रकार से कल्याण करने वाली जगतजननी के रूप में की है।यथा,,,
उद्भवस्थिति सँहारकारिणीम् क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीम् सीताम् नतो$हं रामबल्लभाम्।।
मनुशतरूपा को वरदान देने के समय माता सीताजी को आदिशक्ति जगज्जननी के रूप में ही वर्णित किया गया है।यथा,,,
बाम भाग सोभति अनुकूला।
आदिशक्ति छबिनिधि जगमूला।।
जासु अंस उपजहिं गुन खानी।
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।।
भृकुटि बिलास जासु जग होई।
राम बाम दिसि सीता सोई।।
उत्तरकाण्ड में भी भगवान शिवजी माता पार्वतीजी से कहते हैं कि हे उमा!जगज्जननी रमा(श्रीसीताजी) ब्रह्मादिक देवताओं से वन्दित और सदा अनिन्दित अर्थात सर्वगुणसम्पन्न हैं।देवता जिनका कृपाकटाक्ष चाहते हैं परन्तु वे उनकी ओर देखती भी नहीं,वे श्रीजानकीजी अपने महामहिम स्वभाव को छोड़कर प्रभुश्री रामजी के चरणकमलों में प्रीति करती हैं।यथा,,,
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता।
जगदम्बा संततमनिंदिता।।
जासु कृपा कटाक्ष सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।
उक्त चौपाई का शेष भावार्थ आगामी प्रस्तुति में।
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