*" ज्योति "* (दोहे)
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¶होता सूर्य-प्रकाश से, जगमग जगत उजास।
परम-प्रभा पत-पुंज से, प्रगटे सृष्टि-सुहास।।१।।
¶दिव्य-चित्त की ज्योति से, उन्नत जीवन-पंथ।
होता कर्म महान है, बन जाता सद्ग्रंथ।।२।।
¶हरपल रखना दीप्त ही, ज्ञान-ज्योति भरपूर।
घन-तम तब अज्ञान का, मन से होगा दूर।।३।।
¶दीपक बन जा धैर्य का, भरकर पावन-स्नेह।
ज्योति जले सद्भाव की, मिटे तमस मन-गेह।।४।।
¶आडंबर से लोक में, अहंकार का राज।
सज्जन सुकर्म-ज्योति से, द्योतित करे समाज।।५।।
¶सतत् प्रभासित जो रखे, कर्म-ज्योति-प्रतिमान।
दिव्य-चक्षु भव-भान से, मानव बने महान।।६।।
¶परमारथ के पंथ पर, पनपे पुण्य-प्रकाश।
ज्योतिर्मय धरती रहे, कलुष कटे घन-पाश।।७।।
¶ज्योति मिले जब ज्योति से, ज्योति-परम कहलाय।
जग-जीवन जगमग करे, धरा स्वर्ग बन जाय।।८।।
¶ज्योतिर्मय हर प्राण हो, ज्योतिर्मय हो कर्म।
ज्योति-परम हरपल जले, रहे यही बस धर्म।।९।।
¶प्रेम-प्रकाश प्रदीप्त कर, करना जग-आलोक।
'नायक' सार्थक कर्म हो, मन में रहे न शोक।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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