नदी
मैं नदी हूं
बिना रुके चलती रहती हूं
बहना मेरा काम है
हां नदी ही तो मेरा नाम है
तुमने देखा होगा मुझे
ऊंची चोटी से धारा पर गिरते हुए
मैं कभी थकतीनहीं
मैं कभी रुकती नहीं
मैं कभी उबलती नहीं
देख किसी को जलती नहीं
सदा मस्तानी चाल अपनी चलती रही
ना नाम की चिंता
ना चेहरे पर आती मलिलता
धरती को हरियाली की चुनरी उढ़ाती
कभी प्यासे को मैं पानी पिलाती
उन्मुक्त भाव से स्वयं मिटने को
सदा सागर की ओर बढ़ती ही जाती
मेरी जवानी
है मेरा यह पानी
रुकना मेरा है मौत की निशानी
रे मानव
तू भी तो मेरा ही प्रतिबिंब है
फिर क्यों मुझसे भिन्न है
क्यों तेरी आंखों की सुख गई है पानी
बोझिल क्यों हो गई तेरी जवानी
आचार्य गोपाल जी
उर्फ
आजाद अकेला बरबीघा वाले
प्लस टू उच्च विद्यालय बरबीघा शेखपुरा बिहार
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