मत्तगयन्द सवैया
रूप बड़ो मनमीत लगें यहु, होंठन से रस धार बहाती।
प्रीत करें हिय को वह पावन, आँखिन को अब खूब सुहाती।
प्यार पगी बतियाँ करके इस,भूमि मरू जल भी बरसाती।
चाल चले हिरनी सम खूबइ, झाँपि सदा मुख वो मुसकाती।
डारति केश लटें मुख शोभित होंठन से मधु भी छलकाती।
देखत खोवइ होश सबै अब वो अइसे निज नैन नचाती।
रूप अनूप लिये मनमोहक ओट झरोखन के मुसकाती।
औरु ख़यालु न आवति हैं हिय रूप मनोरम नेह जताती।
पात्र लिए जल को निज हाथन, रूप अनूप बड़ो मन भाये।
चंचल नैन करें बतियाँ खुद, घूँघट को पट खूब सुहाये।
नीर बहाय रही घट से वह, नेह सदा उर बीच समाये।
देखति भान रहे कुछ ना अब, काम सबै मन से बिसराये।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें