डा.नीलम

*दहशत के साये हैं*


हर गली सन्नाटा है
हर मन में हलचल है
ये कैसा साया है जो
मौत बनकर आया है


माँ मजबूर नन्हें को
सीने से लगाने को
पिता मजबूर घर से
बाहर ही रह जाने को


दहशत के साये हैं
हवाओं में फैले हुए
आदमी आदमी से
हैं डरे- सहमे हुए


खौफ मन का शनैः शनै
शैतान बनता जा रहा है
मौत के मरकज़ से निकल
आदम आदमी को खा रहा है


अफवाहो ने इस कदर 
हवाओं में शरण ले ली है 
साधु-संत भी लोगों को 
बच्चा-चोर नज़र आ रहा है


भूख और बेरोजगारी ने भी
दहशत का रुप ले लिया
घबराया आदमी पैदल ही
कई योजन दूरी तै कर रहा


दरो दीवार भी अब 
डरे-सहमें से रहने लगे हैं
हवा भी खटखटाए दर तो
सहम कर सिमटने लगे हैं


गश्त गली- गली अब 
दहशत लगाने लगी है
आदमी भयभीत हो
जी रहा है दहशत के साये में।


           डा.नीलम


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