डॉ ० सम्पूर्णानंद मिश्र प्रयागराज

*यह कैसा दौर है*
यह कैसा दौर है कि
लोग अब किसी को 
गले लगाते ही नहीं 
लोगों के गांधी- विचार भी
अब उन्हें  भाते नहीं!
 मन की गांठों
 की दीवारों पर ‌
अंबुजा सीमेंट ‌चढ़ा है 
आदमी आदमी की
नज़र में ही गड़ा है 
भावनाएं अब दफ़न हो गयी हैं
अंत:अजिर में भी 
कई दीवारें खड़ी हो गईं हैं
आज बस एक दूसरे को ताकते हैं
अनवरत उनके निजी जीवन
में झांकते हैं 
आज लोग एक दूसरे के 
व्रणों को हरा कर देना चाहते हैं ‌
उसके हंसमुख चेहरे पर गंदगी
का कोलतार फेंक देना चाहते ‌हैं
यह कैसा दौर है कि 
लोग अब किसी को 
गले लगाते ही नहीं
प्रेम के ढाई अक्षर की 
दो बूंद अब पिलाते‌ नहींं !
आज कोई किसी का 
   यार नहीं 
किसी के ‌जज़्बात को समझने के लिए तैयार नहीं !
यह कैसा दौर है 
आज सब बहम‌ में 
   जी रहे हैं‌ 
अपमान का विष 
निरंतर पी रहे हैं 
प्रेम की किताबों पर 
नफ़रती स्याही पोत दी गई है ‌
सबसे विचित्र बात तो यह है कि 
पढ़कर भी आदमी निपढ़ा है
आज यह जीव अपने
ही कुविचारों के दलदल में
धंसता जा रहा है 
समय असमय अपने को ही
डंसता जा रहा है ।। 


डॉ ० सम्पूर्णानंद मिश्र


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