"अतिथि"
सनातन धर्म सदा ही कहता है
अतिथि देवो भवः यही प्रथा है
सम्पूर्ण वसुधा को कुटुम्ब मानता है
लगाता गले सभी को प्रेम करता है
अतिथि आगन्तुक और कहलाता पावणा
हे देव!आशीष रखो हम पर यही है कामना
तन मन धन से समर्पण भाव रखकर
अतिथि सेवा मै सर्वस्व समक्ष रखकर
करते अतिथि सेवा स्वीकार देव कीजिये
घर मैं कभी न हो अनादर किसी का आशीष दीजिये
जिस घर मैं हो धर्म का वास वहीं लक्ष्मी है
उस घर पर सदैव प्रभु की कृपा ही बरसी है
प्रेम से की गई अतिथि सेवा ही सर्वोपरि है
चखकर मीठे बेर खिलाये प्रेम से वो माता शबरी है
कुरु आतिथ्य छोड़ मनमोहन ने दिखलाया
प्रेम भरा आतिथ्य ही सदा प्रभु के मन को भाया
✍️✍️डॉ. निर्मला शर्मा
🙏🙏 दौसा, राजस्थान
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
डॉ. निर्मला शर्मा दौसा, राजस्थान
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