स्वप्न की सम्यक ऊँचाई नापता हूँ,
प्रणय में हैं भाव कितने आँकता हूँ,
वह गिरा कितनी मधुर थी प्रेम की,
वह इबारत की तरह क्यों वाचता हूँ।
चंद्रमुख का झटिति अवगुण्ठन तेरा
अनावृत करने की सीमा लाँघता हूँ।
पूर्ण यौवन की व्यथा जो अकथ्य थी
क्यों विजन में आज उसको साधता हूँ
हृदय की जब पीर आँधी हो गयी,
तेरे गेसू के बिखर से बांधता हूँ।
डॉ0 दया शंकर पाण्डेय
9415645195
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