डॉ0 दया शंकर पाण्डेय

तुम व्यथा की पीर समझो,


देख कर थकती नहीं,ऑंखें हुईं हैं
अधीर समझो,


तुम व्यथा की पीर समझो।


जो सुघर सी है खड़ी पथ-श्रान्त कविता सी तुम्हीं हो,


अविखण्डित साधना सी ज्ञान  की ज्ञतिका तुम्हीं हो,


जो विजन में कथा जीवन की गढ़ा था,
वेदना में कलुष मन से जो पढ़ा था


उस हृदय के तंत्रिका की प्रीतिका अब क्यों तुम्हीं हो।


जिस निशा में देखता था स्वप्न की स्नेहिल लड़ीं को,


उस सुखद क्षणिका की अब पथहीन रोकूँ क्यों घड़ी को,


मेरे हृद-छंदों की  मधुरिमगीतिका सी क्यों तुम्हीं हो।


व्यथित जीवन पल्लवित होता कहाँ कब ठूँठ से,
पर हृदय था उच्चपुलकित प्रणय के उस झूठ से,


उस अडिग मधुरिम विधा के निर्झरों में,
आज रितिका सी तुम्हीं हो,


मेरे हृद-छंदों की मधुरिम गीतिका सी
क्यों तुम्हीं हो !


*दया शंकर पाण्डेय*


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...