डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*चौथा अध्याय*(गीता-सार)
जनम-करम मम होय अलौकिक।
करम दिब्य मम इह जग भौतिक।।
     अहहि जगत जे तत्त्वइ ग्याता।
      निज तन तजि ऊ मोंहे पाता।
राग-क्रोध-भय जे जन रहिता।
मोर भगति महँ जे रह निहिता।।
     ग्यान रूप तप होय पवित्रा।
     मम दरसन ते पायो अत्रा।।
मोंहि भजै जग जे जन जैसे।
मैं अपि भजहुँ तिनहिं इहँ तैसे।।
    अस मम रहसि जानि जग ग्यानी।
    मम पथ चलहिं सदा धर ध्यानी।।
जाको मिली न मम ततु-सिच्छा।
देवन्ह पूजि पाय फल-इच्छा।।
     पर अर्जुन तुम्ह पूजहु मोंही।
     प्राप्ती मोर मिलै जग तोहीं।।
ब्राह्मण-छत्रि-बैस्य अरु सुद्रा।
मोर प्रतीक औरु मम मुद्रा।।
गुणअरु कर्म-बर्ग अनुसारा।
रचेयु हमहिं तिन्ह कँह संसारा।।
      पर तुम्ह जानउ मोंहि अकर्ता।
      अहहुँ जदपि मैं तिन्हकर कर्त्ता।।
मैं परमेस्वर,मैं अबिनासी।
स्रस्टा हमहिं जगत-पुरवासी।।
दोहा-मम इच्छा नहिं करम-फल,अस्तु,न करमइ मोह।
       जे जन जानहिं तत्त्व मम,तिन्ह न करम-फल सोह।।
                  डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372     क्रमशः....
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