"धर्म वही जो धारणीय हो"
(वीर छंद)
धारण कर बस वह आचार, जिससे जग में खुशियाँ फैलें.,
मन के गले में माला डाल, फिरे हितैषी बनकर सबका.,
दिल से हो सबका सत्कार, छूट न जाये कोई प्राणी.,
मीठा मधुरस हो उद्गार,उर में सबके प्रेम वृक्ष हो.,
सदाचार का हो संचार, शिष्ट भावना मन में आये.,
मन उर बुद्धि विवेक के तार, जुड़ जायें सब एक पंक्ति में.,
सब अंगों में शुचिर विचार, बहें अनवरत अनत क्षितिज तक.,
मानव मन का हो श्रृंगार, होय सुशोभित सकल लोक यह.,
हो नैतिक कर्तव्याधार, न्याय पंथ का अनुशीलन हो.,
मन को हो विधान स्वीकार, नियमित वंधन का आलम हो.,
सबका सबपर हो अधिकार, सभी प्रीति पुष्प बरसायें.,
जगती का करने उद्धार, चले मन-पवन हो अति हर्षित.,
पावन क्रिया का हो विस्तार, पारदर्शिनी बुद्धि-विवेचन.,
धारणीय हो सात्विक प्यार, मिलें परस्पर सभी मित्रवत.,
भीतर-बाहर एकाकार, हो मन नृत्य करे पृथ्वी पर.,
समरसता की पावन धार, बहे लोक में गंगा बनकर.,
यही धर्म के सच्चे द्वार, जिसके सम्मुख स्वर्गिक जग है।
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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