"धर्म निराला दिव्य पर्व है"
पावन भाव ज्योति सर्व है,
धर्म महोत्सव सहज पर्व है।
सत्य सत्व सत्कर्म सुहावन,
परहितवाद रुचिर मनभावन।
धारण हो नित शुद्ध कामना,
मन में बैठे प्रिया भावना।
कभी अनिष्ट न सोचो प्यारे,
रहना सदा प्रीति के द्वारे।
मनसा वाचा और कर्मणा,
बन पावन उर नित्य विचरना।
लोगों में ही लगा रहे मन,
पर हित हेतु न्योछावर तन धन।
एक तत्व एकेश्वरवादी,
बनकर चलना प्रिय संवादी।
श्वेताम्बरी भारती देखो,
आदर्शों में जीना सीखो।
सद्विवेकमय बुद्धिमान बन,
शिव कर्मों में लगा रहे मन।
गुण गायन हो मधु भावों का,
मधुर मिलन शीतल छांवों का।
जागे उर में नित मानवता,
सदा वृद्धिमय हो नैतिकता।
कपट कुरंग-चाल नष्ट हो,
पारदर्शिता सहज स्पष्ट हो।
साथ रहो अरु साथ निभाओ,
धर्म पंथ रच वृक्ष उगाओ।
करो सहज मानव का वंदन,
सर्व जनाय बन शीतल चंदन।
सेवा कर बनकर निष्कामी,
उड़ बन पवन सदा ऊर्ध्वगामी।
सकल जगत को उर में धरना,
इसीलिए बस जग में रहना।
सम्मोहित होना अपने पर,
स्व को न्योछावर कर सब पर।
धर्म पर्व है सत्कृतियों का,
धर्म सर्व शान्त मुनियों का।
सदा धर्म को सफल बनाओ,
एक सूत्र का विश्व रचाओ।
भेदभाव का वंधन तोड़ो,
मानव-धर्म से नाता जोड़ो।
मानव-धर्म सर्वोच्च धर्म है,
अति पुनीत सुन्दर सुकर्म है।
इस रहस्य को जानो भाई,
आजीवन कर जग सेवकाई।
जो बनता है सेवाकर्मी,
वही विश्व का उत्तम धर्मी।
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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