"धर्म मूल है सृष्टि का"
धर्म मूल है सृष्टि का, धर्म-कर्म विस्तार।
जिसके मन में धर्म है वही है खेवनहार।।
यही प्रथम पुरुषार्थ है यही जगत का मूल।
अर्थ काम अरु मोक्ष ये तीन धर्म अनुकूल।।
जीवन का यह मर्म है कर अति प्रिय सत्कर्म।
सत्कर्मी ही जानता सिर्फ धर्म का मर्म।।
जिसके मन में मधुरता अरु उपकारी भाव।
रचता रहता रात-दिन सतत धर्म का गाँव।।
उसको कुछ दुर्लभ नहीं जिसके शुभ्र विचार।
पावन हिय से रचत है अति पवित्र संसार।।
धर्म दिलाता मनुज को सहज मोक्ष वरदान।
बसे हुए हैं धर्म में शिवशंकर भगवान।।
सुन्दर कर्म महान ही असली जीवन पर्व।
सत शिव सुन्दर कर्म ही इस जगती में सर्व।।
जिस मानव ने पा लिया असल धर्म का ज्ञान।
उसके आगे तुच्छ हैं सकल मान-सम्मान।।
धर्मपरायण बन बढ़ो रख सेवा की सोच।
दुःखी विश्व के आँसुओं को सीखो नित पोछ।।
दीन-हीन इंसान की सेवा धर्म महान।
ऐसे सेवक को सदा ढूढ़ रहे भगवान।।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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