"विकास',
विकसित तन मन विकसित उर हो,
विकसित परिजन विकसित पुर हो,
विकसित पास- पड़ोस आवरण,
विकसित समता अन्तःपुर हो।
विकसित बुद्धि और आत्मालाय,
दिखें हर जगह प्रिय शिव-आलय
वातावरण सुगन्ध सृजनमय,
विकसित ज्ञान सुगम विद्यालय।
विकसित भाव विचार विविध हों,
विकसित चिन्तन मनन सुहृद हों.
हो विकास अन्तिम मुकाम पर,
विकसित जनमानस हर विध हो।
विकसित भूमि पताल गगन हो,
विकसित वारिधि विकसित जड़ हो,
हो विकास का काम चतुर्दिक,
विकसित जननायक सज्जन हों।
विकसित लेखक और लेखनी,
विकसित योग और योगिनी,
हों अवतरित शव्द सुन्दर सत,
विकसित जगती विश्व मोहिनी।
नारायण को क्षीर चाहिये,
इस दुनिया को वीर चाहिये,
सुन्दर मूल्यों का विकास हो.
सबको प्यारा पीर चाहिये।
निर्मलता अरु कोमलता हो,
लिखा भाग्य में प्रेमलता हो,
हो बयार शीतल सरगम का,
सबमें विकसित मानवता हो।
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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