हलधर

ग़ज़ल (हिंदी)
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किसानों की चिंताओं पर अभी भी कर्ज टीला है ।
बताओ  क्यों लिखूँ  मैं गाँव का मौसम रँगीला है ।


घरों में रोग पसरा है कहीं खांसी व खसरा है ,
गिरे  हैं  भाव  मंडी के करें क्या तंत्र ढीला है ।


हमारे गांव में दारु बनी अभिशाप है अब तो  ,
गरीबी की बजाहों का यही मरखम वसीला है ।


सियासत बट गयी है देश की मज़हब कबीलों में ,
सिसकता भूख से बचपन हुआ कमजोर पीला है ।


गरीबी को मिटाने के बहुत दावे हुए अब तक ,
घरों में झांक कर देखो रखा खाली पतीला है ।


मनों से लत गुलामी की अभी छूटी नहीं पूरी ,
हरा  झंडा  कहीं उन्माद है या लाल नीला है ।


अमीरी औ गरीबी में दिनों दिन बढ़ रही खाई ,
कहीं आटा नहीं घर में कहीं पर अन्न सीला है ।


लिखूँ मैं और क्या ज्यादा बगावत हो नहीं सकती ,
लहू में जाति मज़हब नाम का मिश्रण नशीला है ।


मुझे तो लोग कहतें हैं कि पागल हो गया "हलधर",
हमेशा दर्द लिखता है नहीं लिखता रसीला है ।


हलधर-9897346173


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