निशा"अतुल्य"

फ़ुरसत 
9.4.2020


ढूंढ रहा मन मेरा फिर से
फ़ुरसत के वो ही दिन रात 
खाना खेलना बस जीवन था
और सोने का था एक काम ।


जीवन कितना भला भला था
सब तो अपने लगते थे 
नही किसी से बैर कभी था
भले भले सब ही तो थे ।


संशय की ना बात कोई थी
प्यार विश्वास था भरा सब में 
काम आते थे एक दूजे के
रहते थे हर पल मिलकर खड़े ।


कहने को तो काम बहुत थे
फिर भी फ़ुरसत के पल थे
शामें बीतती साथ सदा थी
सुबह भी सब रहते सँग थे ।


अब तो सब खोए अपने में 
समय नही किसी के पास
दूर दूर हो गए सभी तो 
रिश्ते थे जो मन में बसे ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


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