(लघुकथा)
*बंदी और .....बाज*
बंदी यानी लाकडाउन का दौर तारी था। कई दिनों से कस्बे या सांय सांय सुनायी देता या फिर सदर तिराहे के नुक्कड़ पर आवारा कुत्तों रौरव स्वर । हाँ कभी कभार पुलिसिया सायरन सी आवाज, जो यह समझने से लिए काफी थी कि पुलिस आन एक्शन।
दिन एक पहर च चुका था। डॉ खालिद कस्बे को सरकारी में ड्यूटी तैनात थे। इलाज सी मसरुफियत को बीच फोन की रिंग बजी। फोन सी एम ओ आफिस से था। डॉ खालिद को हाट स्पाट पर अपनी टीम सहित पुलिस के साथ जाना था। आनन फानन में अस्पताल से पूरा अमला जगह पर रवाना हुआ।
मेन गली की मस्जिद के गेट और छत पर खडे कुछ उत्पातियों ने पत्थर ईंट बरसाना शुरु कर दिया ।इस हिंसक कार्यवाही में दर्ज को अंजाम देने वाले डॉ खालिद और पुलिस कर्मी को गहन चोंटें आयी। उन्हें तुरन्त सदर जिला अस्पताल पहुँचाया गया। इस हिंसक वारदात में कुछ विरोधी भी चोटिल हुए थे। होश आने पर डॉ खालिद ने सबसे पहले अपने हम राह पुलिस साथी या हाल पूछा। सब खैरियत जान चैन की सांस ली । उन्होंने घायल पत्थर बाज कि हाल पूछा। पता चला इलाज जारी है और ठीक है।
पास खड़े डॉ माथुर बोले-"वो लोग अच्छे नहीं हैं । धर्म इतना निर्मम, काश....."
नहीं नहीं डाक्टर माथुर .......उन्माद और जाहिलों का कोई मजहब नहीं होता । ये इंसानियत के दुश्मन हैं । इंसानियत फिर जीतेगी , भारत जीतेगा ।". कहते कहते आंखें बंद हो गयीं ।।
प्रखर दीक्षित
फर्रुखाबाद
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