गोपाल बघेल ‘मधु’ टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा

 


जीवत्व व ईश्वरत्व  


हर व्यक्ति वही कहता है जैसा आत्मिक रूप से वह होता है या जो वह अपने अनुभव के अनुसार अनुभूति कर पाता है । 


कृष्ण पार्थ से जो कहे कि वे ही ईश्वर हैं वह सर्वथा सर्वदा सत्य वचन था और आज भी कोई भी व्यक्ति ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित हो यह कह सकता है । 


जो उनके या स्वयं के ईश्वरीय स्वरूप को अनुभूत नहीं कर पाए हैं उन्हें यह अतिशयोक्ति लग सकती है ! जिन्होंने इस स्वरूप को देख लिया है, उन्हें यह बात बहुत सामान्य लगेगी । 


कृष्ण सहज भाव से यह सत्य कह दिये थे और बताये थे कि हर आत्मा भी ईश्वर ही है, ईश्वरत्व प्रति जीव जड़ का सहज स्वरूप है जो समय के अन्तराल पर प्राप्य है। 


जो लोग यह स्वरूप नहीं देखे, वे इसे नहीं समझ पाते । वे वही कह पाते हैं जो देख पाए हैं । इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं । समय आने पर जब आत्म ज्ञान हो जाएगा, वे स्वयं इस सत्य को कह पाएँगे । 


मुझे प्रसन्नता है कि हम में से बहुत से लोग उनके या अपने इस स्वरूप को आत्मस्थितिकरण द्वारा समझ लिए हैं ! जो व्यक्ति नहीं समझे हैं समय आने पर वे भी समझ जाएँगे ! 


इसमें कुछ अजीव बात भी नहीं है, हर जीव को यह समझने के लिये ही तो जीवन मिलता या मिलते हैं । कृष्ण को या कृष्ण को समझने वाले व्यक्तियों को उनके यह न समझ पाने से कोई आश्चर्य नहीं होता ! 


सृष्टि में अधिकाँश जीव बृह्म को नहीं समझ पाते; समझने वाले बहुत कम जीव होते हैं । सृष्टि का प्रयोजन ही यही है कि जीव बृह्म अवस्था में प्रतिष्ठित हो जाएँ ! यदि सब बृह्म होते या उनको समझ लेते तो इस सृष्टि के इस स्वरूप की आवश्यकता ही न होती ! 


कृष्ण के काल के अर्जुन जो उनके सखा व परम प्रिय पुरुष थे, वह भी बड़ी मुश्किल से युद्ध भूमि में उनके इतना समझाने पर, इतने दिनों के उनके साहचर्य के बाद भी बिना उनके विराट स्वरूप देखे, उनको कहाँ समझ पाए थे ! उस समय भी कुछ गिने चुने लोग ही उनको समझ पाए थे ! आज ३५०० वर्ष बाद भी उन्हें कुछ लोग ही समझ पाते हैं । जो ख़ुद को नहीं जाने वे उन्हें कैसे जान पाएँगे ! 


जैसे आपका बच्चा आपको कहाँ समझ पाता है; वैसे ही जीव बृह्म को भी उनकी गोद में रहते हुए भी कहाँ जान पाता है ! जितना ज्यादा अज्ञान है, उतना ही स्वयं को महान समझता है, बच्चे की भाँति खूब बोलता है और परम पिता उसका आनन्द लेते हुए, उसे उत्तरोत्तर संभालते सहलाते सुलझाते सहजाते हुए साकार व निराकार स्वरूप से परशते तराशते निखारते चलते हैं ! उनका काम सतत स्नेह देना है और शिशु का काम है माँ बाप को लात मारते हुए उनके बृहत् महत शरीर, मन, आत्म व जगत (य+ गत) को समझते चलना ! 


जब वत्स बड़ा हो जाता है तो परम पिता उससे दूर-रह या उसे दूर- रख या दूर- करा कर उसे उच्च स्तर का परा-ज्ञान देते चलते हैं ! उसके बाद उसे बाप बना स्वयं वत्स बने प्रतक्ष अप्रतक्ष प्रकट अप्रकट रूप से उसकी लीला देखते हैं ! 


कभी कभी हम बृद्ध हो कर भी आत्म ज्ञान या अनुभूतियों में वाल बने रहते हैं, ना ही स्वयं को ना ही सृष्टा को समझ पाते । जागतिक ज्ञान के ग़ुरूर  में गुरु को पहचान नहीं पाते  व जीवन के रहस्य को बिना समझे जीवन के असल रस को नहीं पी पाते ! 


यह सब करते कराते, परम पुरुष हमें अपने निकट और निकट लाते चलते हैं और एक दिन वे अपने हर वत्स को ब्राह्मी अवस्था में ला, भेद समाप्त कर देते हैं ! तब जीव व बृह्म एक हो जाते हैं, द्वैत नहीं रह जाता, सृष्ट जगत अपना लगने लगता है, पराया पन नहीं रहता; प्राण प्रफुल्लित हो परा-प्राणायाम कर उठता है ! आयाम एक हो जाते हैं, पात्र अपने गात में लखते हैं व काल किलकारी भरते हुए किलोल करते द्रष्टि आते हैं ! 


शुभमस्तु !
गोपाल


गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा


१४ अप्रेल, २०१८- सायं ८ 
www.GopalBaghelMadhu.com


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