संतों की हत्या हुई नहीं संस्कृति अनुरूप
देखो कैसे बिगड़ रहा अपना राष्ट्र स्वरूप
जो हो रहा वो कदाचित राजनीति का खेल
मानवता व संस्कारों से नहीं है इसका मेल
रक्षक खड़े हो देख रहे हैवानियत की जंग
निर्मम हत्या देखकर नहीं कोई हीन तरंग
देख राक्षसी प्रवृत्ति क्यों आता नहीं उबाल
अनैतिकता अनाचार की बना देश टकसाल
कहां है सौहार्द आपसी कहां मानवता प्रेम
व्यभिचारी वृत्ति हुई न कहीं कुशल व क्षेम
अपराध प्रवृतियों में भी जाति धर्म की आड़
हिंसा लूट अनैतिकता और अधर्म की बाढ़
दीन हीन को न्याय नहीं जीवन बना है भार
असंतोष अमानवीयता का चारों ओर प्रसार
व्यथित हृदय"सत्य"का अब देख कर्म विपरीत
मनमोहन कृपा करो कि निभा सकें जग प्रीति।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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