चलते चलते
चलते चलते आज हम,किस मुकाम पै आ गये
सदियों की परम्परा छोड़ी, पाश्चात्य में समा गये
भूल गये संस्कार संस्कृति,हमें राग रंग भा गये
नानी दादी की कहानी भूले, चलचित्र अपना गये
लोकलाज की परवाह न,भूले वृद्धों का सम्मान
पत्तल का भोजन भूले,हुआ पशुओं सा खानपान
गाय बैल से रहा न रिश्ता,हुई कृषि यंत्र आधीन
मानवमूल्यों की बात करो,तो भैस के आगे बीन
वेद पुराण अतीत की बातें,नहीं पढ़ना इतिहास
धर्म कर्म की बात करें तो,सहना पड़े हैं परिहास
वसन त्याग अर्धनग्नता अपनाई,ये गौरव की बात
भ्र्ष्टाचार बलात्कार अशिष्टता की,चहुओर बर्षात
रथ बहली व बुग्गी छोड़ी,उड़ें हवा में वायुयान
ईमानदारी का सेहरा पहनें,रग रग से बेईमान
धरती पर बसना न सुहाये,चन्द्र मंगल के स्वप्न
नौकर गाड़ी बंगला चाहत,पर परिश्रम न अल्प
नित्य उपलब्धियों के ढोल पीट,न कहीं संतुष्ट
चलते चलते थक गये,फिर भी जता रहे कि पुष्ट।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें