गज़ल
छुपाकर प्यार करतें हैं जिसे हम इस ज़माने से,
मिलें जब बीच महफ़िल में उसे कहतें हैं अंजाना।
बुझाकर प्यास मीठी जो करे बर्बाद दामन को,
जहां पीते पिलाते हैं उसे कहते हैं मैखाना।
नज़र में हम जिसे अपनी समझते हैं कि है अपना,
जमाने में वही अक्सर हुआ करता है वेगाना।
हमेशा जो हमारे प्रति करे ऐलान चाहत का,
वही बेचैन करता है हमें कहकर के दीवाना।
जिसे गम हो न मरने का वफ़ा की राह पर चलकर,
मिटा दे जो स्वयं निज को वहीं होता है परवाना।
न सिर नीचा तुम्हारा हो जिओ तो शान से सीमा,
उसूलों से जो हट जाओ तो अच्छा है कि मर जाना।
सीमा शुक्ला अयोध्या
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